हकीम हुजूर साहेब के लिए एक संदेस
मर्ज़ बढ़ता गया जितनी दवा करी। यह बात बस इतनी सी है। हमारे गांव में एक हकीम हैं जिन्हें पूरा गांव इज्जत से या डर कर हुज़ूर साहेब कहता है। बड़ा रूतबा है हुज़ूर का। अच्छे अच्छे जमींदार भी उनके सामने जाने में डर के मारे कांपने लगते हैं।
हुजूर हकीम कैसे हैं यह तो पता नहीं। हाँ, किसी ने उनके किसी मरीज को आज तक ठीक होते नहीं देखा। आपसे एक गुज़ारिश है कि मैंने आपको यह बात बताई यह उनसे जा कर कहियेगा नहीं, वरना मेरी तो क्या मेरे खानदान की खैर नहीं। अब देखिये, गांव में रहना है तो हुज़ूर को नाराज़ करके तो नहीं रहा जा सकता ना।
खैर छोड़िये इन बातों को। मैं तो बता रहा था उस बीमारी के बारे में। हकीम साहेब कहते हैं कि बहुत खतरनाक बीमारी है। अब वो कहते हैं तो होगी ही। उनके जितने दोस्त हकीम हैं उन सबके गांव में यह बीमारी फ़ैली है और बेहिसाब लोग मर रहे हैं। लोगों का कहना है कि इस बीमारी का इलाज ना हुज़ूर के पास है और ना ही उनके किसी दोस्त हकीम के पास है। पर लोग तो कहते ही रहते है उनकी बातों का क्या। हमारे हुज़ूर पूरे जोश-ओ-खरोश के साथ इलाज में जुट गए हैं। इलाज के तहत उन्होंने गांव के हर छोटे बड़े को घर की सरहद में कैद होने की हिदायत दी। अब लोग तो जाहिल गंवार ठहरे, अपनी आदतों से कहाँ बाज आते हैं। किसी को अपनी खड़ी फसल को संभालना है, किसी को जानवरों को चारा देना है, किसी को बूढ़ी माँ के लिए शहर से दवा लानी है, किसी के घर में खाने को एक भी दाना नहीं है तो भीख माँगना है, वगैरा वगैरा। हुज़ूर बड़े आदमी हैं। वो जब कुछ सोच लेते हैं तो फिर उन्हें कोई नहीं रोक सकता। लोगों के इन सब बकवास बहानों पर उन्हें बहुत गुस्सा आया।
हुजूर का गुस्सा, बाप रे बाप, किसी क़यामत से कम नहीं होता। हुजूर ने आनन फानन में खूब सारे लठैत बुला लिए। अब लठैत तो लठैत होते हैं, वे कहाँ किसी की सुनते हैं। खैर सुनते तो हुज़ूर साहेब भी नहीं हैं। बहरहाल लठैतों ने लाठियाँ बरसानी शुरू कर दी। मज़ाक में कहा जाने लगा कि छुट्टन मियां बेसन लेने निकले थे सूजी लेके आ गए। अब हर आदमी, औरत, बच्चा घर में कैद था। बड़े बड़े शहंशाह जो कभी ना कर पाए, वो हुज़ूर साहेब ने कर के दिखा दिया। कहते हैं कि हुजूर के सब हकीम दोस्तों ने उनके इस कारनामे पर उन्हें मुबारकबाद दी। आखिर देते क्यों नहीं आज तक किसी हकीम तो क्या हाकिम ने भी ऐसा कारनामा कभी नहीं किया था।
हुज़ूर के कारनामे से उन्हें खूब वाहवाही तो मिली पर हम गांव वालों पर तो कहर टूट पड़ा। इस जबरिया कैद से कितने मरे कोई पता नहीं। जिसने शिकवा शिकायत करने की कोशिश की उसे हुज़ूर के कारिंदों ने गालियों से नवाज़ कर पूरे गांव में मुँह काला करके घुमा दिया। कहा गया कि एक ओर इतनी बड़ी बीमारी से लड़ना है और दूसरी और गांव के ऐसे नामाकूल नालायक दुश्मन हैं जो हुज़ूर की राह में रोड़े बिछा रहे हैं।
धीरे धीरे कर के पूरा गांव हुजूर की तारीफ में कसीदे पढ़ने लग गया। अब तो हुज़ूर को मज़ा आ गया। यह देखने के लिए कि कौन उनके साथ है और कौन उनके साथ नहीं है वो नए नए प्रपंच रचते। कभी नाचने को कहते, कभी गाने को कहते, कभी बजाने को कहते, कभी दिए बुझाने को कहते, कभी दिए जलाने को कहते - हम बेचारे गांव वाले सब करते हैं। जल में रहकर मगर से बैर तो नहीं किया जा सकता।
अब ज्यादा क्या कहें, आप खुद समझदार हैं। फसल चौपट हो रही है, काम धंधे ख़त्म हो गए हैं, जानवरों का दूध नाली में बह रहा है, पोल्ट्री फार्म में मुर्गे जमीन में ज़िंदा दफ़न किये जा रहे हैं, गरीब भूख से मर रहा है, कोई कहीं सुनवाई नहीं है - वैसे सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है। हुज़ूर कह रहे हैं कि यह सब उस बड़ी बीमारी से लड़ने के लिए जरूरी है। अब वो कह रहें हैं तो ठीक ही कह रहे होंगे। हम तो उतने पढ़े लिखे हैं नहीं कि उनकी बात को काट सकें। गांव के एक छोरे ने एक बार हुज़ूर के एक हरकारे से कह दिया था कि हुज़ूर से कहो कि जिन गांवों के हकीम हुज़ूर के दोस्त नहीं हैं वहाँ से भी कुछ सीख लें क्योंकि वहाँ के हालत इतने नहीं बिगड़े हैं। छोरों का क्या है बिना सोचे समझे कुछ भी बक देते हैं। उनको यह ध्यान ही नहीं रहता कि हुज़ूर कितने कड़क हैं।
खैर जनाब आपने हमारी इतनी सुनी उसके लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया। आज के जमाने में कौनो को फुर्सत है कि हम जैसे अनपढ़ गवांर गांव वालन की सुने। कउनो रास्ता तो है नहीं। अब जो जिंदगी में हो रहा है ऊको भोगना तो पड़ेगा ही। हम लोगन को तकलीफ सहने की आदत है तो सह ही लेंगे। यह बीमारी जिसे लोग महामारी कह रहें हैं उसका इलाज जैसा हुजूर कह रहें हैं उसी परकार से करना ही पड़ेगा।
बस आपसे हाथ जोड़ कर एक ही विनती है कि जदि हुज़ूर साहेब से आपमें से किसी भी ज्ञानी की बात हो तो उन्हें बता देना कि हम सब तकलीफ सहने को खुशी खुशी तैयार हैं पर यह समझ में नहीं आ रहा कि लगातार आपकी दवा ले रहें हैं पर मर्ज़ है कि बढ़ता ही जा रहा है। ना ना हमारी तौबा, हमारे बाप की तौबा जो हम हुज़ूर साहेब या उनकी दवा पर कोई शक या शुबहा करें। हुज़ूर साहेब का निज़ाम बुलंद रहे। हम गरीबन का क्या है, आज हैं कल नहीं रहे तो कौन फर्क पड़ेगा? हकीम साहेब गांव क्या पूरे कायनात में अकेले हैं। उनकी शान में हमारी जान हाजिर है। छोटे आदमी हैं हम, अगर कोई गुस्ताखी हो गयी हो तो आप भी माफ़ करियेगा और हुज़ूर साहेब से भी कहियेगा कि गरीब को माफ़ कर दें और जान बख्श दें।
अनिल चावला Follow @AnilThinker
५ अप्रैल २०२०
लगभग एक माह से अधिक समय बीत गया है। इस माह में गरीबों ने बहुत लाठियां खाई, फाके भी किये, सड़कों पर ना जाने कितने मील पैदल चल कर कष्ट झेले। अब गरीबों की चिंता करने की किसे फुरसत है। पर हकीम हुज़ूर साहेब के बारे में कुछ नया समाचार मिला तो सोचा आपको बता दूँ।
पुनश्च:
अभी अभी समाचार प्राप्त हुआ है कि हमारे हकीम हुज़ूर साहेब की हालत बहुत खराब है। सुनने की आदत तो कभी उनको थी ही नहीं। सुनते हैं कि कि अब तो हुजूर न बोल रहे हैं न सुन रहे हैं । अब हम यह तो कह नहीं सकते कि उनकी बोलती बंद हो गयी है। उनके हरकारे अभी भी गांव में लाठियां भांज रहे है। पर हुज़ूर साहेब के बारे में कुछ भी कहना कठिन है। कोई कह रहा था कि हुज़ूर साहेब गहरी उदासी में चले गए हैं। अब ये का होत है हमें तो मालूम नहीं है।
सुनते हैं कि हुज़ूर साहेब के सभी हकीम दोस्तों ने भी अपने सुर बदल लिए हैं। जिनकी नक़ल कर हकीम साहेब ने लठैतों को आतंक मचाने को कहा था वही आज कहने लगे हैं कि बीमारी से बचाने के लिए लोगों को घरों में कैद करना कोई उपचार नहीं हो सकता। जब व्यक्ति का समय बदलता है तो दोस्त कैसे दगा दे जाते हैं यह साफ़ दिखने लगा है। अब कोई अपना दोस्त ऐसा करता तो कॉलर पकड़ कर दो लगा देते। वैसे हुज़ूर साहेब का भी यही मन कर रहा है। पर ये कोई गांव देहात का मामला तो है नहीं सो हुज़ूर मन मसोस कर रहने को मजबूर हैं।
हमारी छोटी बुद्धि में तो यूँ समझ आ रहा है कि हुज़ूर साहेब की हालत उस आदमी जैसी हो गयी है जो बडे जोश से एक जानवर की पीठ पर बैठ तो गया, फिर बाद में समझ आया कि जानवर तो खूंखार है। अब उस से न बैठते बने न उतरते। घबराहट में बोलना सुनना बंद हो गया है। अब कोई उनकी मदद करे भी तो कैसे। वैसे उनका पिछला रिकॉर्ड है कि जिस जिस ने हुजूर साहेब की सहायता की हुजूर ने उनको निपटाया तो किसी की हिम्मत भी नहीं हो रही आगे बढने की। अब तो हुजूर को दुआएं ही बचा सकती हैं।
अनिल चावला Follow @AnilThinker
७ मई २०२०
पुनश्च:
बंधुओं आपको स्मरण होगा कि आपके इस विनीत सेवक ने दिनांक ५ अप्रैल २०२० को एक लेख लिखा था - "हकीम हुजूर साहेब के लिए एक संदेस"।
अभी अभी हकीम हुज़ूर साहेब के बारे में पता चला है कि साहेब की हालत गाँव के बाहर लगे उस बिजली के खम्भे की तरह हो गयी है, जो खड़ा तो पूरी बुलंदी से है पर जिसको हर आता जाता कुत्ता टांग उठा कर गीला करता रहता है। साहेब के एक अत्यंत पॉवर वाले दोस्त, जिनसे साहेब नमस्ते नमस्ते खेला करते थे, अपने गाँव में झगड़े टंटों में उलझ गये हैं। साहेब के एक और दोस्त थे जिनके साथ साहेब को झूला झूलना पसंद था। अब वो दोस्त साहेब को आँखे दिखा रहे हैं। हकीम साहेब की दवा ने काम नहीं किया, बीमारी बढ़ती गयी जितनी दवा की गयी - यह तो कोई ख़ास बात नहीं, गरीब तो पैदा ही मरने के लिए होते हैं। पर दोस्तों ने साथ छोड़ दिया, यह हमारे हुज़ूर साहेब को, सुनते हैं, परेशान कर रहा है। अब हम गरीब आदमी साहेब को जा कर यह तो समझा नहीं सकते कि समय बदलता है तो सब बदल जाता है।
बस, आपसे एक विनती है कि यदि हो सके तो हमारे हकीम हुज़ूर साहेब के लिए दो आँसू बहा देना। अब देखिये, आप से साफ़ साफ़ कह दें कि दो आँसू मतलब केवल दो आँसू ही। ऐसा ना हो कि आप भी गीला करने पहुँच जाओ। वैसे भी खम्भे के आस पास ज्यादा गीला हो गया तो कीचड़ में कमल तो शायद खिल जाए पर खम्भा अपनी बुलंदी कायम नहीं रख पाएगा। हकीम हुज़ूर साहेब हमारे गाँव की शान हैं। उनका निज़ाम बुलंद रहना चाहिए। हम गरीबन का क्या है, आज हैं कल नहीं - कौनो फ़र्क नहीं पड़ता।
अनिल चावला Follow @AnilThinker
३१ मई २०२०