तलाक़ ए बिददत, थानेदार साहब और बन्दर के हाथ में उस्तरा
बात तलाक़ जैसे गंभीर विषय पर हो रही हो और इस खाकसार को मजाक सूझने लगे तो यह गुस्ताखी ही कहलाएगी। पर बात ही कुछ ऐसी है। मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण ) विधेयक, २०१७ (जो कि १९ सितम्बर २०१८ को अध्यादेश की शक्ल में कानून बन चुका है) को पढ़ने के बाद किसी भी समझदार आदमी को देश के कानून निर्माताओं की अक्ल पर हँसी आना स्वाभाविक है। मात्र सात धाराओं का यह कानून शायद देश का सबसे छोटा अपराध सम्बन्धी विधेयक होगा। मुसलमान जो इस देश के अधिकतर भाग में अल्पसंख्यक हैं उनके लिए बने इस कानून में धाराओं की अल्प संख्या को देख कर ऐसा लगा कि विधि निर्माताओं ने विस्तृत विधेयक बनाने की ज़हमत नहीं उठाई। ठीक ही है, जब बकरा छोटे से उस्तरे से हलाल हो सकता है तो बड़ा छुरा क्यों खरीदा जाए।
अपनी बात शुरू करने के पहले मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि मैं ना तो शरीयत के बारे में कुछ जानता हूँ और ना ही मैं तीन बार तलाक़ कह कर तलाक़ देने का पक्षधर हूँ। मैं एक वकील हूँ तथा न्यायशास्त्र का अदना सा विद्यार्थी हूँ। मेरी इस तथाकथित तीन तलाक़ कानून पर आपत्तियाँ शरीयत पर आधारित बिलकुल नहीं हैं। मेरी आपत्तियाँ न्यायशास्त्र के मूलभूत सिद्धांतों के साथ साथ कुछ सहज समझदारी (जिसे अंग्रेजी में कॉमन सेंस कहते हैं) पर आधारित हैं। मैं ठेठ हिन्दू हूँ। पर इसका यह मतलब कतई नहीं है कि मुसलमान मेरे शत्रु हैं। मैं अपने मुसलमान भाईयों, बहनों और अज़ीज़ों के लिए प्रेम भाव रखता हूँ और उनके परिवारों पर चोट करने वाली हर दुस्साहस और मूर्खता से भरी हरकत का प्रतिकार करना अपना फ़र्ज़ समझता हूँ।
सबसे पहले बात करें परिभाषा की - मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण ) विधेयक, २०१७ (तीन तलाक़ कानून) में तलाक़ शब्द की परिभाषा में कहा गया है कि तलाक़ मतलब तलाक़-ए-बिद्दत या तलाक़ का कोई अन्य समान रूप अभिप्रेत। यह स्पष्ट नहीं किया गया की किस प्रकार की प्रक्रिया से घोषित तलाक़ को तलाक़-ए-बिद्दत का दर्जा दिया जाएगा। उदाहरण के लिए यदि कोई मुस्लिम पति अपनी पत्नी को तीन दिन तक प्रतिदिन सुबह उठ कर यह कहता कि मैं तुझे तलाक़ दे रहा हूँ तो क्या यह तलाक़ उक्त परिभाषा के अंतर्गत तलाक़-ए-बिद्दत है या नहीं? हिन्दू कानून में यह वाज़िब प्रश्न नहीं है पर इस्लामिक कानून के जानकार यह अवश्य पूछेंगे कि क्या इन तीन दिनों के दौरान इस पति पत्नी के बीच यौन सम्बन्ध स्थापित हुए थे कि नहीं? मैंने यह उदाहरण केवल विषय की उलझनों पर ध्यान आकर्षित करने के लिए प्रस्तुत किया। तलाक़-ए-बिद्दत को तलाक़ की किसी और किस्म में बदलने के लिए इस प्रकार के प्रश्नों और यहां तक कि महिला के मासिक धर्म के बारे में जानकारी अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है। संभवतः भारत सरकार द्वारा पारित तीन तलाक़ कानून चाहता है कि तलाक़ तलाक़-ए-बिद्दत या तलाक़-ए-अहसन या कोई और किस्म इसका निर्णय शरीयत के अनुसार किया जाए। क्या यह कहीं बेहतर नहीं होता कि विधेयक में ही स्पष्ट परिभाषा दे दी जाती?
स्पष्ट परिभाषा की बात से शायद आप सहमत होंगे। हाँ पर यदि आप विद्वान् वकील हैं तो बिलकुल सहमत नहीं होंगें। अरे भाई इसी तरह की उलझनों से ही तो वकील कमाते हैं। और एक मैं मूर्ख हूँ कि अपनी ही बिरादरी वालों के पेट पर लात मारने वाली बात कर रहा हूँ। पर वकील तो बाद में कमायेंगें, असली खुशी तो मेरे मित्र थानेदार साहब को हो रही है। इस तीन तलाक़ क़ानून में निर्णय का पहला अधिकार उनके पास आ गया है। इस कानून के तहत एक ख़ास किस्म का तलाक़ एक गंभीर अपराध हो गया है - संज्ञेय यानी बिना सवाल गिरफ्तारी के काबिल और गैरजमानती। थानेदार साहब खुश हैं कि कमाई का एक और रास्ता खुलने वाला है। अब सीधी सी बात है कि जिस मुसलमान पति पर तीन तलाक़ का केस बनायेंगे और हवालात में बंद करेंगें तो वह कुछ तो भेंट न्यौछावर देगा ही।
कुछ ना कुछ खटपट हर दंपत्ति में होते रहना वैवाहिक जीवन का एक कटु परन्तु सनातन सत्य है। साधारणतः कानून की मंशा यह होती है कि दिक्क्तों को सुलझा कर विवाह को बचाया जाए। भारत के सभी तलाक़ सम्बन्धी कानूनों में विवाह विच्छेद प्रक्रिया में बीचबचाव या सुलह का प्रावधान रखा गया है। मुसलमानों में भी इस प्रकार की प्रक्रिया की आवश्यकता मह्सूस की गयी है। तीन बार कह कर तलाक़ देने में सबसे बड़ी मुश्किल यही है कि इसमें बीचबचाव या पुनर्विचार की कोई संभावना नहीं होती। आवेश में बोले गए शब्दों से परिवार टूट जाता है। इस्लाम भी इसे गलत मानता है और तलाक़ के अन्य तरीकों की अनुशंसा करता है। परन्तु क्या तीन बार तलाक़ को अपराध घोषित कर देना समस्या का समाधान है? आइये इस प्रश्न को पहले एक प्रभावित स्त्री के नज़रिये से देखें और फिर एक पुरुष की दृष्टि से।
मान लीजिये कि रात को पति पत्नी में झगड़ा हुआ और पति ने गुस्से में पत्नी को तीन बार तलाक़ कह दिया। सुबह पत्नी की चिन्ताएँ क्या होंगीं? साधारणतः वह पत्नी के रूप अपना स्थान पुनः पाना चाहेगी; वह अपने पति के घर में पूर्व की तरह रहना चाहेगी; वह अपने पति की कमाई का कुछ हिस्सा चाहेगी; वह बच्चों पर अधिकार चाहेगी। यदि वह थानेदार साहब के पास जा कर रपट लिखा देती है तो पति हवालात में तो बंद हो जाएगा पर उसका परिवार सदा के लिए बिखर जाएगा। जितने समय तक उसका पति जेल में बंद रहेगा तो उस बेचारी महिला के सामने जीवनयापन की मुश्किल खड़ी हो जाएगी। उसके ससुराल वाले उसके दुश्मन हो जाएंगे और जेल से लौटने के बाद उसका पति दूसरे किसी तरीके से उसे निश्चय ही तलाक़ दे देगा। वैसे उसे तलाक़ देने के लिए जेल से वापस लौटने का भी इंतजार करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। जेल में रहते हुए इस्लामिक क़ानून के अनुसार तलाक़ देना अत्यंत आसान होगा क्योंकि वह अब बिना यौन सम्बन्ध बनाये एक एक माह के अंतराल तीन बार से तलाक़ की घोषणा कर सकेगा। कुल मिला कर उस बदनसीब महिला की स्थिति बद से बदतर हो जाएगी, उसके हाथ कुछ नहीं आएगा और यह सब उसके हालात सुधारने के नाम पर लागू किये गए कानून की बदौलत होगा।
कुछ मित्रों को मेरी बात कल्पना की उड़ान लगे। इसलिए एक विधिक दृष्टांत देकर बात समझाना उचित होगा। अनीसा खातून की शादी घियासुद्दीन से २८ अगस्त १९०५ को हुई थी। लगभग दो सप्ताह बाद यानी १३ सितम्बर १९०५ को घियासुद्दीन ने अनीसा खातून को दो गवाहों के सामने तलाक़ दे दिया और महर की रकम भी अदा कर दी। उसके बाद घियासुद्दीन और अनीसा खातून पंद्रह वर्षों तक साथ रहे और उनके पाँच बच्चे हुए। तत्पश्चात घियासुद्दीन की मृत्यु हो गयी। उसकी मृत्यु के पश्चात यह प्रश्न प्रस्तुत हुआ कि क्या उनके बच्चे वैध संतानें थी या अवैध? मामला विभिन्न न्यायालयों से होते हुए प्रिवी कौंसिल तक पहुँचा। प्रिवी कौंसिल ने निर्णय सुनाया कि घियासुद्दीन की पांचों संतानें अवैध थी। प्रिवी कौंसिल का निर्णय शरीयत के हिसाब से संभवतः उचित हो परन्तु मानवीय आधार पर उससे सहमत नहीं हुआ जा सकता। (उक्त प्रकरण हेतु स्रोत - सर्वोच्च न्यायालय का शायरा बानो वि. भारतसंघ एवं अन्य में निर्णय)
निश्चय ही कानून में परिवर्तन की आवश्यकता थी ताकि घियासुद्दीन और अनीसा की संतानें अवैध ना मानी जाएँ। पर घियासुद्दीन को यदि अपराधी घोषित कर जेल में डाल दिया जाता तो शायद अनीसा खातून कुछ अधिक दुःखी और परेशान होती। अनीसा खातून ना तो तब अपने पति घियासुद्दीन के प्रेम का सुख भोग पाती और ना ही माँ बनने का सुख अनुभव कर पाती।
अभी हाल में लागू किये गए तीन तलाक़ कानून से यह सुनिश्चित हो जाएगा कि कभी भी आवेश में गलती से दिया गया तलाक़ पत्थर की लकीर बन जाये और किसी भी प्रकार से आपसी सहमति और पुनर्मिलन के सभी रास्ते पूरी तरह बंद हो जाएँ। चाहे अनीसा खातून हों या आज के युग की कोई पीड़ित मुस्लिम महिला इससे सहमत नहीं होगी।
अभी हमने एक पीड़ित महिला की दृष्टि से तीन तलाक़ कानून को देखा। आइये अब एक पुरुष की दृष्टि से भी देख लें। मान लीजिये कि रात को पति पत्नी में झगड़ा हुआ और दोनों एक दूसरे की ओर पीठ करके सो गए। सुबह तक भी पत्नी का गुस्सा शांत नहीं हुआ और वह थानेदार साहब के पास शिकायत करने पहुँच गयी। पत्नी ने शिकायत लिखायी कि रात को जनाब ने उसे तीन तलाक़ कहा था। थानेदार साहब की बांछे खिल गयी। उन्होंने आव देखा ना ताव और फौरन पति महोदय को लाकर हवालात में बंद कर दिया। पति बेचारा रोता गिड़गिड़ाता रहा कि उसने सपने में भी तलाक़ का नहीं सोचा था, जबान से कहना तो दूर की बात है। पर थानेदार साहब उसकी क्यों सुनने लगे। घर के बाकी लोग जमानत कराने आये तो थानेदार साहब ने कहा कि जमानत तो कोर्ट से ही होगी। थानेदार साहब बड़े दयालु किस्म के इंसान थे इसलिए उन्होंने कहा आप लोग परेशान ना होवो। पति महोदय के लिए थाने की हवालात में ही सब सुविधा का इंतजाम हो जाएगा और आप लोग खाना भी घर से ही ले आना। हाँ इन सब सुविधाओं के लिए कुछ सुविधा शुल्क देना पडेगा। बाकी दो तीन दिन में वकील साहब कोर्ट से जमानत करवा ही लेंगे। पूरा परिवार कोर्ट कचहरी पुलिस और वकीलों के चक्करों में ऐसा उलझा कि बर्बाद हो गया।
नए तीन तलाक़ कानून में ना कोई सुनवाई का प्रावधान है ना ही जमानत का और ना ही किसी प्रकार की अपील का। यह एक ऐसा काला कानून है कि बस आरोप लगा और सजा निश्चित। यह भी आवश्यक नहीं कि पत्नी ही आरोप लगाए। कोई भी आरोप लगा सकता है। एक व्यक्ति दो गवाहों के साथ थाने में शिकायत कर सकता है कि फलां साहब ने अपनी बीबी को हमारे सामने तलाक़ दिया था और अब वे मियां बीबी अवैध रूप से साथ रह रहे हैं। बस थानेदार साहब तुरंत उन मियां साहब को पकड़ कर बंद कर देंगे और उनकी जमानत भी नहीं होगी। शादी टूटेगी सो अलग। पत्नी का यह कहना कि उसके शौहर ने उसे कभी तलाक़ नहीं दिया नज़रअंदाज़ कर दिया जाएगा क्योंकि सब गवाहों के अनुसार जब तलाक़ दिया गया तब पत्नी वहां नहीं थी। जरूरी नहीं कि तलाक़ अभी हाल में ही दिया गया हो। साहब मरने को हैं अंतिम साँसे गिन रहे हैं और उधर उनके ही भाइयों ने उनकी शादी पर सवाल खड़े कर के उनके अपने बेटों को ही हरामजादा सिद्ध करके जायदाद हथियाने की योजना बना ली। थानेदार साहब बहुत खुश हैं क्योंकि उनको तगड़ी रक़म मिल रही है। वक़ील भी नोट गिन रहें हैं। साथ ही नेता मुस्लिम कल्याण के नाम पर वोटों की फसल काटने के सपने देख रहे हैं।
यदि आप भारतीय न्याय और पुलिस व्यवस्था को नहीं जानते तो मेरी बातें आपको अतिश्योक्तिपूर्ण या अतिरंजित प्रतीत होंगीं। पर यदि आप भारत के गाँवों, कस्बों और शहरों में सरकारी प्रणाली का अनुभव कर चुके हैं तो आप मेरी बातों से निश्चित ही सहमत होंगें। हमारे यहाँ दहेज़ कानून हो या अनुसूचित जातियों से सम्बंधित कानून, दो तिहाई से अधिक प्रकरण झूठे होते हैं। पुलिस द्वारा अपने अधिकारों का दुरूपयोग भी एक सामान्य सी बात है। मुस्लिम भी हमारे देश के समाज का एक अंग हैं और सभी दुर्गुणों से उतने ही ग्रसित हैं जितना समाज का कोई अन्य वर्ग। उनके यहाँ भी कानून की कमजोरियों का बेज़ा फ़ायदा उठाने वालों की कोई कमी नहीं होगी। सात धाराओं का तीन तलाक़ कानून इतना छिद्रपूर्ण दोषपूर्ण और त्रुटिपूर्ण है कि इसका दुरूपयोग व्यापक पैमाने पर होना निश्चित माना जा सकता है। मैं एक वकील के रूप में बिना किसी शंका के यह अभिमत व्यक्त कर सकता हूँ कि इस मूर्खतापूर्ण विधेयक से मुसलमान परिवारों पर गंभीर दुष्प्रभाव पड़ेंगे। इससे ना महिलाओं का भला होगा और ना ही पुरुषों का। इससे पुलिसिया आतंक और भ्रष्टाचार बढ़ेगा। इससे मुक़दमेबाज़ी को प्रोत्साहन मिलेगा और कटुता बढ़ेगी।
मैनें अपने एक भक्त मित्र से यह सब कहा तो वे कहने लगे कि आप तो मोदी जी की आलोचना करने का बहाना ढूँढ़ते रहते हैं और उनकी अच्छी नीयत की प्रशंसा नहीं करते। उनका कहना था कि मोदी जी ने एक अच्छा प्रयास किया है और यदि कानून में कुछ कमियां रह गयीं हैं तो उन्हें धीरे धीरे ठीक किया जा सकता है। भक्त जी की बात बिलकुल सही है। हर कानून परिवर्तनशील होता और अनुभव के आधार पर कानून को बदलना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। मेरे इस कथन पर भक्त जी प्रसन्न हो गए और बोले आप तो हमारे अपने हैं, आप ही बताईये कि तीन तलाक़ से सम्बंधित कानून कैसा होना चाहिए।
मैनें उन्हें कहा कि इसमें कोई शक नहीं है कि तलाक़-ए-बिद्दत को कानूनी रूप से अमान्य घोषित किया जाना चाहिए। मुसलमानों में तलाक़ की जो स्वीकारणीय पद्धतियां हैं उन्हें कानूनी रूप से स्पष्ट किया जाना चाहिए। विवाह और तलाक़ मूलतः दीवानी मामले हैं उन्हें फौजदारी बनाना गलत है। कोई भी महिला चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान या किसी और धर्म को मानने वाली, जब उसका पति उसको अचानक छोड़ देता है तो उसके सामने समस्या सर के ऊपर छत, रोज़ी रोटी और अपने बच्चों को पालने की होती है। कानून का काम विवाह का संरक्षण करते हुए यह प्रयास करना है कि प्रत्येक परित्यक्ता को अपने पति की कमाई में एक निश्चित भाग अधिकारपूर्वक प्राप्त हो, उसे रहने के लिए घर मिले और उसके बच्चों को सब अधिकार मिलें। महिला हिन्दू हो या मुसलमान, यदि उसका विधिवत विवाह विच्छेद नहीं हुआ है तो उसको यह अधिकार होना चाहिए कि वह अपने पति के नियोक्ता को कहे कि उस के वेतन का एक भाग पति को ना देकर पत्नी के बैंक खाते में जमा कराया जाए। मेरी बात पर मेरे भक्त मित्र उखड़ गए, मुझे भला बुरा कहने लगे और यह कहते हुए चले गए कि तीन तलाक़ की चर्चा में आपको हमारे महान नेता के व्यक्तिगत जीवन पर निशाना साधना शोभा नहीं देता। मुझे उनकी बात समझ में तो आ गयी पर आपको समझाऊँगा नहीं क्योंकि आप खुद समझदार हैं।