मौत के आँकड़े और डरने डराने का खेल
आज हर ओर मौत से डरने डराने का खेल चल रहा है। चाहे टी वी हो या सोशल मीडिया सब तरफ आपको डराया जा रहा है। सरकार के देशबन्दी के निर्णय को सही ठहराने के लिए ऐसे ऐसे तर्क दिए जाते हैं कि अगर व्यक्ति गंभीरता से सोच विचार नहीं करता हो तो घबराहट से वो कोरोना वायरस के आने के पहले ही मर जाए। मुझे एक मित्र ने लिखा कि यदि लॉकडाउन नहीं होता तो इतनी मौतें होती कि लाशों को जलाने के लिए भारत के जंगलों के पेड़ कम पड़ जाते। अतिश्योक्ति और अतिरंजना की ऐसी बातें अनेक माध्यमों से जन जन में घूम रहीं हैं और आम जनता में भय और चिंता का वातावरण निर्मित कर रही हैं। आंकड़ों से जिस झूठ के मायाजाल की रचना की जाती है वह अत्यंत खतरनाक होता है।
आंकड़ों की बात करें तो हमें समझना होगा कि भारत में लगभग एक करोड़ व्यक्ति प्रति वर्ष काल के मुँह में समा जाते हैं। किसी भी बीमारी के प्रभाव को समझने के लिए हमें इस सन्दर्भ को नज़र में रखना उपयुक्त होगा। यदि किसी रोग से कुल मृत्यु के आंकड़े में बहुत थोड़ा असर पड़ने की सम्भावना है तो उस रोग को राष्ट्रीय परिदृश्य में विशेष तवज्जो देने की आवश्यकता नहीं है।
मृत्यु के आंकड़ों के सन्दर्भ में एक और बात गौर करने योग्य है। यदि एक ओर दस लाख की आबादी वाले देश में एक महामारी से दो हजार लोग मर जाते हैं और दूसरी ओर पैंतीस करोड़ की जनसँख्या वाले देश में पचास हजार व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त होते हैं तो उस छोटे देश में स्थिति अधिक गंभीर है। हमारा मीडिया बड़ी संख्या पर हल्ला मचाता है और इस प्रकार हमारी सोच को विकृत करता है। उदाहरण के लिए मीडिया में अमेरिका में हो रही मौतों के बारे में खूब हल्ला मच रहा है जबकि फ्रांस के बारे में उतनी चर्चा नहीं है। सत्य यह है कि २ मई तक फ्रांस में प्रति दस लाख व्यक्तियों पर ३७६.८ व्यक्ति मरे थे और अमेरिका में १९६.६ लोग मरे थे।
दस लाख की जनसँख्या पर कोविड १९ से एक - डेढ़ माह में लगभग दो सौ व्योक्तियों की मृत्यु एक चिंताजनक विषय प्रतीत हो सकता है। परन्तु हम जब इसको कुल मृत्यु के आंकड़े के सदर्भ में देखते हैं तो समझ में आता है कि कोविड से मरने वालों की उक्त संख्या वार्षिक मृत्यु के आंकड़े का मात्र दो दशमलव तीन प्रतिशत है।
इस लेख के साथ मैं एक सारणी संलग्न कर रहा हूँ। उसमें देखा जा सकता है कि सर्वाधिक प्रभावित देश स्पेन, इटली, यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस, नेदरलॅंड्स, स्वीडन, अमेरिका, स्विट्ज़रलैंड, पुर्तगाल, कनाडा, डेनमार्क, जर्मनी हैं। अगर इन देशों में हुई कोविड मृत्यु के आंकड़ों पर नज़र डालें तो स्पष्ट है कि जर्मनी में आबादी के मात्र ०.००७८ प्रतिशत की मृत्यु हुई है और अधिकतम मृत्यु स्पेन में हुई हैं जहाँ जनसंख्या के ०.०५३१ प्रतिशत की मृत्यु हुई है। अगर वार्षिक कुल मृत्यु गणना के सन्दर्भ में देखें तो जर्मनी में कुल वार्षिक मृत्यु के ०.६८ प्रतिशत की मृत्यु हुई है और स्पेन में ५.८३ प्रतिशत की मृत्यु हुई है। इन तथ्यों के सन्दर्भ में कोविड १९ से होने वाली मौतों के आंकड़ें कुछ विशेष डरावने प्रतीत नहीं होते।
उक्त सारणी पर नजर डालते ही एक बात स्पष्ट हो जाती है कि कोविद १९ एक अमीर देशों की बीमारी है। सारणी में अधिकतम मौतों वाले प्रमुख देश तुलनात्मक दृष्टि से अमीर देश हैं। गरीब देश इस सारणी में कहीं बहुत नीचे हैं। एक और तथ्य पर ध्यान देना उचित होगा। अफ्रीका जहाँ बहुत गरीबी है वहां कोविद १९ से होने वाली मौतें लगभग नगण्य हैं।
यदि हम भारत के आस पास नजर डालें तो पता लगता है कि भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार, श्री लंका, थाईलैंड के मृत्यु के आंकड़ों में कोई विशेष अंतर नहीं है। इन सब देशों में मृत्यु जनसँख्या के ०.०००२ प्रतिशत से कम रही है। यदि वार्षिक मृत्यु के आंकड़ों के सन्दर्भ में देखें तो दक्षिण एशिया के किसी भी देश में कोविड से हुई मृत्यु साधारणतः होने वाली मौतों के ०.०५ प्रतिशत से अधिक नहीं है। स्पष्ट है कि भारत के नेताओं ने जिस कठोर लॉकडाउन एवं कर्फ्यू को डंडे के जोर पर देश की गरीब जनता पर थोपा उससे देश को कोई लाभ नहीं हुआ है।
हमारे माननीय नेताओं ने बिना किसी वैज्ञानिक आधार के देशबन्दी लागू कर दी। इसके ठीक विपरीत ब्राज़ील एवं स्वीडन ने विशेषज्ञों की राय को सुना। विशेषज्ञ मत था कि कोविड १९ से मरने वालों की संख्या देश की आबादी का अधिकतम ०.१ प्रतिशत होगा। इन दोनों देशों के नेताओं ने तय किया कि ०.१ प्रतिशत को बचाने के लिए शेष ९९.९ प्रतिशत को बर्बाद करना समझदारी कतई नहीं हो सकती। उन्होंने कुछ कदम अवश्य उठाए पर भारत की तर्ज पर अपनी अर्थव्यवस्था को भस्म नहीं किया। ब्राज़ील में अभी तक जनसंख्या का ०.००३ प्रतिशत कोविड को बलि चढ़ा है और स्वीडन में यह संख्या ०.०२६३ प्रतिशत है। दोनों देशों के नेताओं और वैज्ञानिकों को विश्वास है कि वे अनुमानित ०.१ प्रतिशत आबादी से कहीं कम मृत्यु पर इस महामारी को रोक देंगे।
सच यह है कि जिस देश के लोग मरना नहीं जानते वह देश कभी समृद्ध देश नहीं हो सकता। भारत के नेता समझते हैं कि देश के लिए मरने का काम केवल सेना के जवानों का है। आज जब युद्ध का स्वरुप बदल चुका है तो हर नागरिक सिपाही है और अर्थव्यवस्था ही युद्ध का मैदान है। ब्राज़ील और स्वीडन ने मौत को आलिंगन करना स्वीकार कर आज के युग के आर्थिक विश्वयुद्ध में पहला मोर्चा जीत लिया है। हम जान है तो जहान है का राग आलाप रहे थे और उधर विश्व के समझदार गा रहे थे - ज़िंदा रहने के मौसम बहुत हैं मगर जान देने की रुत रोज़ आती नहीं। हम डर कर दुबक कर घरों में घुस रहे थे और वो अपने उद्योगों को सशक्त और सक्षम बना रहे थे।
आइये अब मौत के आंकड़ों से डरने डराने के खेल को समाप्त करें और निर्भीक हो कर आर्थिक विश्व युद्ध में लड़ने के लिए कमर कस कर आगे बढ़ें।
अनिल चावला Follow @AnilThinker
३ मई २०२०