पत्थर का क्षरण और अजर अमर महाकाल
समाचारपत्रों के माध्यम से ज्ञात हुआ कि उज्जैन महाकाल मंदिर के शिवलिंग के क्षरण की शिकायतों और उसे संरक्षित किये जाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने कलक्टर की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति गठित की थी। कमेटी ने शिवलिंग के संरक्षण के लिए सुझाव दिये थे। कमेटी के ज्यादातर सुझाव स्वीकार करते हुए उसी के आधार पर मंदिर प्रबंध समिति ने शिवलिंग की पूजा अर्चना का नया प्रस्ताव पारित किया है। उज्जैन में महाकाल के शिवलिंग का जलाभिषेक अब आरओ वाटर से होगा। शिवलिंग पर चीनी पाउडर की जगह खांडसारी मली जाएगी और और एक व्यक्ति सिर्फ आधा लीटर आरओ जल व सवा लीटर पंचामृत या दूध चढ़ाएगा। इतना ही नहीं भस्म आरती के समय शिवलिंग को सूखे सूती कपड़े से ढका जाएगा। कहा जा रहा है कि उज्जैन में पौराणिक और आध्यामिक आस्था के केन्द्र भगवान महाकाल को संरक्षित करने के लिए ये नये कदम उठाए गए हैं। (उक्त अनुच्छेद दैनिक जागरण एवं दैनिक भास्कर में प्रकाशित समाचार के आधार पर)
मैं महाकाल का भक्त हूँ। मुझे इन समाचारों को पढ़ कर अत्यंत दुःख और पीड़ा हुई है। सर्वोच्च न्यायालय से लेकर जिलाधीश और तथाकथित विशेषज्ञों को निश्चय ही यह ज्ञात नहीं है कि महाकाल अजर और अमर हैं। महाकाल तो हम सब का संरक्षण करते हैं। जो महाकाल का संरक्षण करने की बात कर रहे हैं वे निश्चय ही महाकाल के भक्त तो कतई नहीं हो सकते।
हिन्दू धर्म का यह दुर्भाग्य है कि इसके ध्वजवाहक ही इसे नहीं समझते और मूर्खतापूर्ण भ्रान्तिओं को बल प्रदान करते रहते हैं। एक सामान्य गलतफहमी है कि हिन्दू धर्म में पत्थर या मूर्ति की पूजा होती है। सच यह है कि पत्थर कि पूजा तो वो करते हैं जिनके लिए अपने प्रभु को याद करते हुए सदा एक विशिष्ट स्थान की और मुँह करके रहना आवश्यक होता है। हिन्दू के प्रभु तो सर्वव्यापी हैं। वे तो कण कण में हैं और हर भक्त के ह्रदय में भी निवास करते हैं।
हम किसी भी रूप में अपने प्रभु को देख लेते हैं। वे हमारे मित्र भी हैं, बंधु भी हैं, सखा भी हैं, पिता भी हैं और माता भी हैं। हमें जब भी उनका स्मरण करने के लिए किसी प्रतीक की आवश्यकता होती है तो हम उन्हें अपने मनचाहे प्रतीक में आव्हान कर बुला लेते हैं। यह प्रतीक एक गीली मिट्टी का पिण्ड भी हो सकता है, उबले चावलों का एक गोला भी हो सकता है और सुपारी का फल भी हो सकता है। आव्हान करने के पश्चात हम पूरी श्रद्धा से अपने प्रभु की पूजा अर्चना करने के बाद अपने प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि अब आप प्रस्थान करें। प्रस्थान के इस अनुरोध को विसर्जन कहा जाता है। आव्हान और विसर्जन के मध्य के काल में ही ऐसा प्रतीत होता है कि प्रतीक की पूजा हो रही है। विद्वत जन जानते हैं कि पूजा कभी भी प्रतीक की नहीं होती। पूजा तो उन सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान की होती है जिनको भक्त ने उस प्रतीक में स्थापित किया होता है।
प्रतीक में प्रभु का स्थापित होना आत्मा के शरीर धारण करने के समान है। शरीर बूढ़ा होता है और इसका अंत भी होता है। पर आत्मा तो अजर एवं अमर है। परमात्मा एवं उसके विभिन स्वरूप तो निश्चय ही अजर अमर हैं। इस विश्व में भौतिक रूप में जो कुछ भी है वह नाशवान है। चाहे वह आत्मा द्वारा धारण किया गया तन हो या प्रभु का प्रतीक - जिसका भी प्रारम्भ है उसका अंत अवश्यम्भावी है। इस परम सत्य को स्वीकार करना हिन्दू धर्म का मूल भाव है।
सार्वजनिक गणेशोत्सव एवं नवरात्रि में इसी परम सत्य को रेखांकित किया जाता है। जिस मूर्ति की अतिशय प्रेम श्रद्धा के साथ कई दिन तक पूजा की जाती है उसी को विसर्जन के पश्चात नाचते गाते हुए एक जुलूस के रूप में ले जा कर पानी में फेंक दिया जाता है। यही जीवन है। आज जिस शरीर को मेरे घरवाले प्रेम से रखते हैं, उसी को आत्मा के प्रस्थान के बाद एक रात भी घर में नहीं रखना चाहेंगें।
बुढ़ापे एवं मृत्यु को सहजता से स्वीकार करना हिन्दू धर्म का मूल भाव है। हम अपने प्रभु को जब विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से पूजते हैं तो हमें सदा यह आभास रहता है कि प्रभु शाश्वत हैं किन्तु उन्हें हम जिस प्रतीक में स्थापित कर रहे हैं वह नाशवान है। हम यह कभी नहीं भूल सकते कि उज्जैन में महाकाल जिस पत्थर के शिवलिंग में स्थापित हैं वह शिवलिंग शाश्वत नहीं है यद्यपि महाकाल शाश्वत, निरंतर और अजर अमर हैं। पत्थर में क्षरण होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसे कुछ हद तक धीमा किया जा सकता है रोका नहीं जा सकता। जो प्राकृतिक है, स्वाभाविक है उसे रोकने का प्रयास करना हिन्दू धर्म के सिद्धांतों के विरुद्ध है। ऐसा प्रयास करते हुए अपने पारम्परिक व्यवहार और पद्धतियों को त्याग देना तो निरी मूर्खता ही कही जाएगी।
यदि शिवलिंग के पत्थर का क्षरण हो चुका है तो इसका अर्थ केवल इतना ही है कि अब समय आ गया है कि भक्तजन महाकाल से प्रार्थना कर उन्हें उस पत्थर से प्रस्थान कर किसी नवीन शिवलिंग में स्थापित होने का विनम्र अनुरोध करें। यह महाकाल के चोला बदलने की प्रक्रिया होगी जिसे पूरे उत्साह के साथ एक उत्सव के रूप में मनाया जाना चाहिए।
पत्थर के शिवलिंग से महाकाल का बाहर निकलना कोई अनूठी घटना नहीं है। महाकाल प्रतिवर्ष सावन एवं भादों माह में शाही ठाठ-बाठ के साथ नगर भ्रमण को निकलते हैं। जब महाकाल नगर भ्रमण को निकलते हैं तो पूरा शिवलिंग नहीं जाता है। केवल एक मुखौटा महाकाल को धारण करता हुआ भक्तों को दर्शन देता है। यदि महाकाल एक मुखौटे में स्थापित हो सकते हैं तो चोला बदल कर एक नवीन शिवलिंग में निस्संदेह स्थान ग्रहण कर सकते हैं।
मूल एवं अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पत्थर का शिवलिंग महाकाल का प्रतीक है, महाकाल का निवास भी माना जा सकता है परन्तु महाकाल नहीं है। महाकाल अजर अमर सनातन शाश्वत हैं जबकि शिवलिंग का कोई प्रारम्भ है अतः निश्चय ही अंत भी है ही।
महाकाल को जो भोग लगाया जाता वह इस सिद्धांत पर आधारित है कि भक्त जो खाते पीते हैं वही अपने प्रभु को भी समर्पित करते हैं। हम दूध घी दही ग्रहण करते हैं तो यह सब हम अपने प्रभु को भी अर्पित करते हैं। महाकाल के मंदिर में होने वाली प्रत्येक पूजा और परम्परा के पीछे गंभीर दर्शन और इतिहास है। उस दर्शन को नकार जिनका ना तो महाकाल में कोई विश्वास है, ना ही हिन्दू धर्म के मूल सिद्धांतो का कुछ भी ज्ञान है वे ही आज महाकाल को संरक्षित करने की मूर्खतापूर्ण बात कर रहे हैं। यह कैसी विडंबना है कि पत्थरों और पुरातत्व के विशेषज्ञ निरंतर जीवित और जीवन प्रदान करने वाले महाकाल की पूजा अर्चना की पद्धति निर्धारण करने की धृष्टता कर रहे हैं।
हिन्दू समाज और विशेष कर महाकाल के भक्तों को इसका विरोध करना चाहिए। यह हिन्दू समाज और धर्म को बदनाम करने की एक साजिश है। समय आ गया है कि जगत को यह स्पष्ट बताया जाए कि हिन्दू अनंत रूप धारण करने वाले सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान का पूजक है पत्थरों का नहीं। पत्थर की मूर्तियां उस अनंत असीम का प्रतीक या माध्यम अवश्य हैं, स्वयं प्रभु कतई नहीं हैं। प्रतीकों और माध्यमों का क्षरण एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। उसे रोकने का प्रयास कर हम हास्यास्पद नहीं बनना चाहते। क्षरण मृत्यु का ही एक स्वरूप है जो नवसृजन का पूर्व चरण है। हम महाकाल के भक्त मृत्यु को भी सहर्ष स्वीकार करते हैं तो फिर हम क्षरण से विचलित कैसे हो सकते हैं। आइये हिन्दू धर्म के सरकारी तथाकथित शुभचिंतकों से विनम्र आग्रह करें कि कृपया हिन्दू धर्म को आपकी मूर्खतापूर्ण विशेषज्ञता से वंचित ही रहनें दें।
जय महाकाल!