हम देश की मजबूरी हैं और हम नहीं सुधरेंगे!
पिछले कुछ सप्ताह में बहुत से संघ के स्वयंसेवकों और भाजपा के नेताओं एवं कार्यकर्ताओं से वार्तालाप हुआ। हर बार वे बात को घुमा फिरा कर राहुल गाँधी उर्फ़ पप्पू नाम के एक शख्स पर ले आते। मैंने उनसे बार बार कहा कि मैं राहुल गाँधी का समर्थक नहीं हूँ, मैं तो बस इतना चाहता हूँ कि आपको हम लोगों ने अर्थात देश के लोगों ने जो जिम्मेदारी सौंपी है आप उसका सही ढंग से निर्वहन करो और देश का सत्यानाश ना करो। बदले में मेरे इन पुराने मित्रों ने मुझे अपशब्दों से सुशोभित करना प्रारम्भ कर दिया। खैर कई दशकों से लिखते हुए मुझे अपशब्दों की तो आदत हो गयी है, अब मैं गालियों से विचलित नहीं होता। सो अपने पुराने मित्रों की बातों को मुस्करा कर सुनता रहा। मेरे इन मित्रों से हुई बातचीत का सार मैं आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। आशा करता हूँ कि आप उनकी बातों को समझ कर मुझे भी समझाने की कृपा करेंगे। ध्यान रहे कि इस लेख में जहाँ भी हम या आप या वे शब्द का प्रयोग हुआ है, वह मेरे संघ और भाजपा के प्रिय मित्रों के लिए ही हुआ है।
हम बस इतना समझाना चाहते हैं कि प्रैक्टिकली सोचें। इस समय नरेंद्र मोदी का कोई विकल्प नहीं है। ना तो भाजपा में है और ना ही किसी अन्य दल में है। राहुल गाँधी एक कम अक्ल वाला इन्सान है। उसको देश सौंप देना देशद्रोह से काम नहीं है। अन्य सब दल व्यक्तिगत स्वार्थ से संचालित एक व्यक्ति पर केंद्रित समूह हैं। उनको सत्ता में लाने से देश फिर आया राम गया राम वाले युग में आ जाएगा। देश में राजनैतिक स्थिरता अत्यंत आवश्यक है और उस स्थिरता की गारंटी केवल भारतीय जनता पार्टी दे सकती है। कुल मिला कर यह स्वीकार करना ही होगा कि भाजपा और मोदी के अतिरिक्त देश के सम्मुख कोई विकल्प नहीं है।
मैं अपने मित्रों के उक्त तर्कों के सम्मुख नतमस्तक हो जाता हूँ। फिर भी हिम्मत करके पूछता हूँ कि आज से लगभग चार पाँच दशक पूर्व जब इंदिरा गाँधी सत्ता में थी तब कांग्रेसी इसी प्रकार के तर्क दिया करते थे तब आप उनका क्या प्रतिकार करते थे? मैनें और आपने अपना राजनैतिक जीवन आपातकाल और इंदिरा गाँधी के अधिनायकवाद का विरोध करते हुए प्रारम्भ किया था। क्या मेरा और आपका उस समय का विरोध और उस समय दिए गए सब तर्क गलत थे या मात्र जुमलेबाजी थे?
मेरे प्रश्नों से मेरे मित्र बिफर जाते हैं। मुझसे कहने लगे देखो कुतर्क मत करो। तुम्हारी कुंठाओं को हम समझते हैं। यह ठीक बात है कि इतने लम्बे समय तक सेवा करने के बाद भी तुम्हें कोई ठीक पद या पुरस्कार नहीं दिया गया। बहुत ऐरे गैरे लोगों को पार्टी ने राज्य सभा में भेज दिया और तुम को योग्य होते हुए भी कोई अवसर नहीं दिया गया। पर इसमें कुछ गलती तुम्हारी भी तो है। किसी को भी कुछ भी कह देते हो। थोड़ा सामंजस्य बना कर पार्टी लाइन पर चलते तो आज इतने कुंठित नहीं होते और दिल्ली में ऐश कर रहे होते।
देश और विचारधारा को छोड़ चर्चा अचानक मेरे व्यक्तिगत जीवन पर आ गयी। मैं हतप्रभ था। पर मैं समझ रहा था कि जब उनके पास तर्क नहीं बचता तो वे व्यक्तिगत आक्षेप भी लगाते हैं और प्रलोभन भी देने लगते हैं। मैनें उनसे स्पष्ट किया कि मैं कुंठित कतई नहीं हूँ और मैं उनसे बहस इसलिए नहीं कर रहा कि मुझे कोई व्यक्तिगत पुरस्कार या प्रतिकार की आशा है। मैं स्वयं को देश का एक जिम्मेदार नागरिक मानता हूँ और इस नाते मैंने सदा देश की वैचारिक एवं राजनैतिक प्रक्रिया में भाग लिया है और आज भी ले रहा हूँ।
मेरी बात शायद उनकी समझ के परे थी। अपने बचाव में उन्होंने मुझे अपने तरकश की समस्त राजनैतिक गालियों से सम्बोधित किया। सिकुलर से बात शुरू हुई और प्रेसस्टिचुट कहने के बाद वे थक गए। उनकी गालियों पर मैं हंस दिया और कहा कि ये विषबुझे तीर मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। मैं संघ का स्वयंसेवक भी हूँ, भाजपा का कार्यकर्ता भी खूब रहा हूँ और हिन्दू धर्म के लिए मैंने जितना लिखा है उतना संघ और भाजपा में निश्चय ही किसी और ने नहीं लिखा है। मेरी बात से मेरे मित्र निरुत्तर भी हो गए और कुछ घबरा भी गए।
वे कहने लगे कि तुम तो हमारे अपने आदमी हो अंदर तक सब कुछ जानते हो फिर क्यों बहस कर रहे हो। ज़रा समझा करो, आज मोदी को चुनौती देने वाला, ना भाजपा में है ना संघ में है। संगठन का नियम ही यही है कि जो शक्तिमान है उसके सामने झुक कर चलो। तुम्हारे पास योग्यता है, क्षमता है कि बिना किसी से कुछ भी मांगे अपना जीवन सुखपूर्वक चला सकते हो। अब हर व्यक्ति तो तुम्हारे जैसा नहीं हो सकता। तुम्हें तो अपने पोलिटिकल कैरियर की कोई चिंता कभी नहीं रही। अब हर कोई तुम्हारे जैसा छुट्टा साँड तो नहीं हो सकता। हमारी अपनी मजबूरियाँ हैं, महत्वाकांक्षाएं हैं। भैया ज़रा समझ लो और हम पर कृपा करो।
जब कोई आत्मसमर्पण की मुद्रा में आ जाए और निरीह बेचारगी का भाव अपना ले तो समझ में नहीं आता कि आगे क्या बात की जाए। मैनें फिर मूल विषय की ओर चर्चा को ले जाने का प्रयास किया। मैनें कहा कि जिस ढंग से बिना किसी पूर्व सूचना के, बिना किसी योजना के देशबन्दी लागू की गयी उससे देश को बहुत नुकसान हुआ है। एक व्यक्ति के अहम् के कारण लाखों करोड़ों प्रवासी मजदूरों और उनके परिवारजनों ने जो कष्ट भोगे हैं उससे मेरा ही नहीं देश का हृदय द्रवित हो गया है। देश कभी इस के लिए संघ और भाजपा को क्षमा नहीं करेगा। आने वाले चुनाव में संभालना मुश्किल हो जाएगा। अभी भी समय है कि संघ और भाजपा का नेतृत्व बिगड़ते हालत को संभालने का प्रयास करे।
उनकी प्रतिक्रिया कुछ इस प्रकार थी - अरे तुम बहुत कोमल हृदय हो। सामाजिक राजनैतिक जीवन में इतना नाजुक दिल ले कर काम नहीं चल सकता। और चुनाव के बारे में हम तुमसे ज्यादा जानते हैं। हमारे सामने कोई चुनौती है ही नहीं। कांग्रेस में निराशा का भाव छाने लगा है। समाजवादी हथियार डाल चुके हैं। बहुजन समाज पार्टी को हमने सेट कर लिया है। क्षेत्रीय दल तो बिन पेंदे के लोटे होतें हैं, धन बल से उनको हमसे अच्छा कोई नहीं खरीद सकता। बाकी ठीक चुनाव के पूर्व तिकड़म करने, जनता का ध्यान भटकाने में भी हमारा कोई प्रतिद्वंदी दूर दूर तक नहीं है। सोशल मीडिया हो या प्रिंट मीडिया या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया - प्रत्येक को बस में करने के लिए हमारे पास रणनीति भी है और उसको क्रियान्वयन करने के लिए अमला भी हमारे पास ही है। इसलिए लोकसभा चुनाव तो चाहे २०२४ का हो या २०२९ का, हम ही जीतेंगे।
मैंने कहा कि आपने जो कुछ कहा वह शत प्रतिशत सही है। इस देश का दुर्भाग्य है कि राजनैतिक परिदृश्य पर मैं कोई विकल्प उभरता दूर दूर तक नहीं देख पा रहा हूँ। अब उनकी बाछें खिल गयीं। बोले, देश का दुर्भाग्य गया भाड़ चूल्हे में हमें तो अपना भाग्य देखना है। मैंने कहा अफ़सोस यह है कि शिशु स्वयंसेवक के रूप में मुझे संघ की शाखा में जो संस्कार मिले उनके अनुसार मैंने देश को दुर्भाग्य में धकेल कर खुद का भाग्य संवारना नहीं सीखा। उन्हें लगा कि मैं उन्हें ताना दे रहा हूँ या तंज कस रहा हूँ। नाराज़ हो गए। बोले तुम्हें अपना समझ कर तुम्हें समझाने आने आये थे, तुम्हारा कुछ भला करना चाहते थे। पर तुम हो कि पता नहीं किस जमाने के संस्कारों का पल्लू पकड़ कर बैठे हुए हो। अरे मूर्ख, समय के साथ बदलना सीखो।
अब मेरा धैर्य भी जवाब देने लगा था। मैनें कहा देखो बंधु, अब मेरी तो उम्र हो गयी। अभी तक नहीं बदले तो अब क्या बदलेंगे। दाल रोटी की व्यवस्था येन केन प्रकारेण हो ही जाती है। अधिक भोग विलास की मेरी कभी इच्छा भी नहीं रही। पता नहीं उन्हें क्यों लगा कि मैं उन पर व्यंग्यात्मक बाण फेंक रहा हूँ। बोले, देखो तुमसे बहस करना निरर्थक है। पर तुम्हें मित्र और शुभचिंतक के नाते इतना बता देतें हैं कि तुम्हारा उद्धार तो भगवान् भी नहीं कर सकते। जहाँ तक देश की बात है, देश के सामने हमारा कोई विकल्प नहीं है। हम देश की मजबूरी हैं। देश को हमें झेलना ही होगा। और ये जो तुम सोच रहे हो कि लम्बे लम्बे लेख लिख कर या बड़ी बड़ी बातें करके तुम हमें सुधार दोगे या हममें कोई आमूलचूल परिवर्तन ला दोगे, ऐसा कभी नहीं होगा। हम ना तो पढ़ते हैं और ना ही अपने नेता के अतिरिक्त किसी की सुनते हैं। साफ़ शब्दों में कहें तो यह समझ लो कि हम नहीं सुधरेंगे , तुमसे जो करते बने कर लो।
सामाजिक दूरियों के इस काल में यह चर्चा फोन पर हो रही थी या मैं सपना देख रहा था, यह मैं आपको नहीं बताऊंगा। पर आपको इस में जो समझ में आया हो वह कृप्या मुझे भी समझाइएगा।
अनिल चावला Follow @AnilThinker
२४ मई २०२०